व्यक्तित्व की परिभाषा तत्व तथा विकास

मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के विकास ने व्यक्तित्व की पुरानी धारणाओं को बदल दिया है। अतः व्यक्तित्व का आधार क्या होना चाहिए? यह प्रश्न मनोवैज्ञानिक उनके लिए जटिल बन गया था। उन्होंने विभिन्न रूपों तथा दृष्टिकोण से व्यक्ति का अध्ययन किया एवं व्यक्तित्व की प्राचीन अवधारणाओं को समाप्त कर नवीन अवधारणाओं को स्थापित किया। जैसा कि गिरि शरण कालसी तथा अन्य ने लिखा है – ” व्यक्तित्व संपूर्ण मनुष्य है, उसकी स्वाभाविक अभिरुचि एवं क्षमताएं तथा उसके भूतकाल में अर्जित किए गए ज्ञान ( अधिगम फल) इन कारकों का संगठन एवं समन्वय, व्यवहार प्रतिमानों, आदर्श मूल्यों और अपेक्षाओं की विशेषताओं से पूर्ण होता है।”


विभिन्न दृष्टिकोण में व्यक्तित्व का अर्थ
विभिन्न विद्वानों के दृष्टिकोण से व्यक्तित्व के अर्थ को निमृत तरह स्पष्ट किया जा सकता है-


1 दार्शनिक दृष्टिकोण– दर्शन के अनुसार इसकी परिभाषा निम्न तरह से है-
व्यक्तित्व आत्मज्ञान का ही दूसरा नाम है यह पूर्णता का प्रतीक है इस पूर्णता का आदर्श ही व्यक्तित्व को प्रदर्शित करता है।
2 समाज शास्त्रीय दृष्टिकोण– इस दृष्टिकोण के अनुसार व्यक्तित्व उन सभी तत्वों का संगठन है जिनके द्वारा व्यक्ति को समाज में कोई स्थान प्राप्त होता है अतः व्यक्तित्व का एक सामाजिक प्रभाव है।
3 मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण– इस दृष्टिकोण के अनुसार व्यक्तित्व का अर्थ वंशानुक्रम तथा वातावरण का ही एक रूप है।
मार्टन के अनुसार – “व्यक्तित्व व्यक्ति के जन्मजात एवं अर्जित स्वभाव मूल प्रवृत्तियों भावनाओं और इच्छाओं आदि का समुदाय है।”
बुड़बर्थ के अनुसार- व्यक्ति के व्यवहार का समाचार ही उसका व्यक्तित्व होता है।
4 मनोविश्लेषणात्मक दृष्टिकोण – इस दृष्टिकोण के जन्मदाता फ्राइड हैं, जिन्होंने व्यक्तित्व को तीन भागों में बांटा है। इदम् अहम् एवं परम अहम् ।इदम् चेतन मन में स्थित प्राकृत शक्तियां हैं, जो अवैध अथवा अज्ञान की अवस्था में मृत है। इसे शीघ्र ही संतुष्टि मिलनी चाहिए। अहम् वह चेतन एवं चेतन शक्ति है, जिनमें तर्क तथा बुद्धि का समावेश है। इसका संबंध इदम् अहम् दोनों से हैं। परम अहम व्यक्ति का आदर्श होता है। यह नैतिकता के आधार पर अदम् की आलोचना करता है एवं उसे सही मार्ग दिखाता है।


युग के अनुसार व्यक्तित्व के दो भाग हैं –

1 व्यक्तिगत अज्ञात मन

2 सामूहिक अज्ञात मन

व्यक्ति के अज्ञात मन में दबी हुई इच्छाएं संचित रहती हैं प्रोग्राम साथ ही जीवन के अनुभव जिन्हें समय धीरे-धीरे भुला देता है उनके स्मृति चिन्ह भी मन के इस भाग में बने हुए रह जाते हैं। सामूहिक अज्ञात मन में जातीय गुण समाविष्ट रहते हैं। आता यह भाग जातीयता के गुणों अर्थात पूर्वजों से प्राप्त गुण तथा विशेषताओं का कोष है।

5 सामान्य दृष्टिकोण– व्यक्तित्व का अर्थ व्यक्ति के प्रभाव के गुणों से लिया जाता है, जो दूसरों के हृदय पर विजय पाने में मददगार होते हैं। इसी के कारण कहा जाता है – व्यक्तित्व वह उद्दीपक मूल्य है, जो एक व्यक्ति दूसरे के लिए रखता है।
इस तरह मनुष्य के व्यक्तित्व के पक्षों में शारीरिक पक्ष, बौद्धिक पक्ष, भावात्मक पक्ष, सामाजिक पक्ष, संकलनात्मक पक्ष एवं नैतिक पक्ष शामिल होते हैं।

व्यक्तित्व की परिभाषाएं

व्यक्तित्व के संबंध में विभिन्न शिक्षा शास्त्रियों के द्वारा दी गई परिभाषाएं निम्न है –
मन के अनुसार – “व्यक्तित्व एक व्यक्ति के गठन व्यवहार के तरीकों, रूचियों, दृष्टिकोणों, क्षमताओं तथा तरीकों का सबसे विशिष्ट संगठन है।”
वारेन के अनुसार – “व्यक्तित्व व्यक्ति का संपूर्ण मानसिक संगठन है, जो उसके विकास की किसी भी अवस्था में होता है।”
उपर्युक्त परिभाषाएं, जो व्यक्तित्व की स्पष्ट तथा सही रूप से व्याख्या करती है, क्रियाशील बनाती है, व्यवस्थित व्यवहार की तरह इंगित करती हैं एवं व्यक्तित्व के वंशानुक्रम तथा वातावरण के महत्व की तरह हमारा ध्यान आकर्षित करती है।

व्यक्तित्व के तत्व

व्यक्तित्व का अध्ययन प्रबंधकों के लिए अपरिहार्य हो गया है क्योंकि मनुष्य का व्यक्तित्व अनेक कारणों से निर्मित होता है। व्यक्तित्व के द्वारा परिवर्तन की एक प्रक्रिया का बोध होता है, विशेष रूप से इसका संबंध व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक विकास से है। बोनर ने व्यक्तित्व के अर्थ को व्यापक रूप से स्पष्ट करने के लिए निम्न तत्वों पर विशेष बल दिया है-
1 व्यक्तित्व किसी व्यक्ति के संपूर्ण कार्य का प्रत्यक्षीकरण है
2 किसी स्थिति विशेष में व्यक्तित्व को उसके संपूर्ण परिवेश में देखा जा सकता है।
3 सामान्य व्यक्तित्व के अंतर्गत एक गतिशील संतुलन की स्थिति विद्यमान रहती है।
4 लक्ष्यों के बीच चयन की प्रक्रिया के आधार पर एक व्यक्तित्व से दूसरे व्यक्तित्व के मध्य विभाजन की रेखा खींची जा सकती है।
5 व्यक्तित्व के अंतर्गत भूतकाल के अनुभवों और भविष्य की आशाओं को सम्मिलित किया जाता है।

व्यक्तित्व का विकास

मानवीय व्यवहार की समझ के महत्वपूर्ण क्षेत्र के रूप में व्यक्तित्व का विकास वर्षों से अध्ययन एवं शोध का प्रमुख विषय रहा है। वास्तव में, विकास अवधारणा व्यक्तित्व सिद्धांत का ही एक रूप है जो कि शोध अभीमुखी है। प्राचीन मनोविश्लेषकों के विपरीत जो वंश परंपरा, वातावरण, परिपक्वता एवं सीखने को ही व्यक्तित्व में सम्मिलित करते हैं, विकासात्मक मनोविज्ञान का मत है कि इसमें मनुष्य के मनोवैज्ञानिक तथा दार्शनिक अंतर्क्रिया भाग शामिल है। अतः वंशानुगत, वातावरण, परिपक्वता तथा सीखना जैसे घटक मानवीय व्यक्तित्व के योगदान देते हैं।
अधिकांश मनोविश्लेषको का मत है कि व्यक्ति अधिकारिक आवश्यकताएं एवं योग्यताओं को अपने में जोड़ते हुए परिपक्वता की प्राप्ति करता है। व्यक्ति अपने निजी जगत के विभिन्न अंगों में विकास करता है। जैसे-जैसे mahak होता जाता है, अधिकारिक अंगूर आवश्यकता एवं योग्यताओं को अपने में जोड़ता है। इस कार्य के फल स्वरुप व्यक्तित्व संगठन के संतुलन में कोई व्यक्ति क्रम पैदा नहीं होता है। नवीन अंगों के समावेश में व्यक्ति के निजी जगत में भी फैलाव आता है। शिक्षा एवं प्रशिक्षण के द्वारा व्यक्ति सही गलत का निर्णय कर पाता है तथा पूर्ण विकसित होने का प्रयास करता है। एरिक इरिकसन ने विकास की आठ मनोवैज्ञानिक अवस्थाओं का उल्लेख किया है-

1 मुख एवं संवेदन
2 त्यागने योग्य अंग एवं शरीर की मांसल संरचना
3 चलन एवं जनन संबंधी
4 अप्रसन्नता
5 अवस्था एवं युवावस्था
6 प्रारंभिक बाल्यावस्था
7 युवा एवं बाल्यावस्था
8 परिपक्व बाल्यावस्था

व्यक्तित्व के प्रमुख निर्धारक तत्व :
व्यक्तित्व कैसे निर्धारित होता है? वास्तव में मानवीय व्यवहार के अध्ययन में यह सबसे जटिल प्रश्न है, क्योंकि संज्ञान एवं मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं के साथ कई घटक व्यक्तित्व के निर्माण में योगदान देते हैं। व्यक्तित्व के प्रमुख निर्धारक निम्नलिखित हैं-

1. वंश परम्परा (Heredity) :- मनोवैज्ञानिकों का मत है कि व्यवहार में वंश परम्परा का प्रभाव कम दिखाई पड़ता है। स्कॉट के मतानुसार, “इसकी भूमिका के सम्बन्ध में वंश परम्परा पर प्रभाव डालने वाले तत्वों के निर्धारकों का विकास होता है। अनुकरणशीलता इसमें पायी जाती है। वंश कम का समस्त ज्ञान वैयक्तिक भिन्नता को प्रकट करता है।” स्कॉट का मत है कि व्यक्ति को अपने वंशानुक्रम के द्वारा जीवित रहने तथा विकास करने हेतु अपेक्षित आधारभूत संरचना की प्राप्ति होती है।

2. शारीरिक संरचना (Physique) :- शरीर के स्नायु मण्डल तथा क्रियाओं का व्यक्तित्व के विकास पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। इसमें शरीर का आकार, स्नायुविक प्रणाली, प्राण प्रणाली आदि को शामिल किया जाता है जिसके माध्यम से व्यक्ति को आधारभूत बौद्धिक योग्यता की प्राप्ति होती है तथा व्यक्ति स्वयं को आगे के जीवन में प्रकट करता है । इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं कि शारीरिक कमी का मनुष्य के व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है। मनुष्य की बुद्धि, मानसिक योग्यता, मानसिक दुर्बलता, व्यक्तित्व के विकास में प्रत्यक्षतः सहायक होती है । दुर्बल व्यक्ति का व्यक्तित्व पूर्णतः विकसित नहीं होता है।

3. वातावरणीय प्रभाव (Environmental Effect) :- वातावरणीय घटकों का व्यक्तित्व के विकास पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। मनुष्य एक गतिशील सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण में रहता है तथा वातावरणीय विशेषताओं के अनुसार ही उसका विकास होता है । वातावरण दो रूपों में प्रभाव डालता है-सामाजिक वातावरण तथा सांस्कृतिक वातावरण । व्यक्तित्व के निर्धारण में परिवार तथा संस्कृति का अत्यधिक महत्व होता है। सामाजिक तथा मनोरंजन संबंधी क्रियाएं व्यक्तित्व के विकास में विशेष भूमिका निभाती हैं

4. बाल्यावस्था के अनुभव (Childhood experiences) :- बाल्यकाल के अनुभव भी स्थायी रूप से मनुष्य के व्यक्तित्व का अंग बन जाते हैं। माता-पिता तथा घर के अन्य सदस्यों का व्यवहार भी बच्चे के विकसित मस्तिष्क पर प्रभाव डालता है !

5. सामाजिक कारक (Social factors) :- व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले सामाजिक कारकों को मोटे रूप में निम्न तीन भागों में बांटा जा सकता है-घर, स्कूल एवं समाज। सभी मनोवैज्ञानिक इस बात पर सहमत हैं कि व्यक्तित्व के विकास में घर के परिवेश का बड़ा प्रभाव पड़ता है। यद्यपि घर के परिवेश का जीवन पर्यन्त व्यक्ति के व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है, फिर भी बाल्यावस्था में यह प्रभाव सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि इसी समय व्यक्तित्व के आधारभूत तत्वों का निर्धारण होता है। घर के परिवेश में बालक के अतिरिक्त जितने भी सदस्य होते हैं, उन सबका बालक के व्यक्तित्व एवं व्यवहार पर प्रभाव पड़ता है। इसी प्रकार, संयुक्त परिवार में पले बालक का व्यक्तित्व छोटे परिवार में पले बालक से पृथक होता है। माता-पिता के व्यक्तित्व तथा व्यवहार का बालक के सामाजिक-सांस्कृतिक विकास एवं व्यवहार पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। अनेक शोध अध्ययनों से यह भी ज्ञात हुआ है कि बालक के अपराधी होने में परिवार की स्थिति का बड़ा प्रभाव पड़ता है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक एल्फेड एडलर का मत है कि परिवार में बालक के जन्म क्रम का भी उसके व्यक्तित्व पर बड़ा प्रभाव होता है। प्रायः निविध जन्मक्रम के बालकों के प्रति एक-सा व्यवहार नहीं किया जाता है। पारिवारिक स्थिति से उसके कार्यों पर प्रभाव पड़ता है तथा इससे उसके व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है।
बालक के व्यक्तित्व पर स्कूल, शिक्षक तथा सहपाठियों का भी प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। जिस तरह घर में माता-पिता बालक के सामने आदर्श के रूप में होते हैं, उसी प्रकार शिक्षक बालक के सामने आदर्श के रूप में होता है। शिक्षक का व्यक्तित्व प्रभावशाली न होने पर उसका बालक के व्यक्तित्व पर उत्तम प्रभाव नहीं पड़ता है ।

समाज तथा संगठन का भी व्यक्तित्व पर प्रत्यक्ष प्रभाव होता है। समाज सामाजिक सम्बन्धों का ताना-बाना है जो विभिन्न व्यक्तियों को एक-दूसरे से सम्बन्धित रखता है। व्यक्तियों के परस्पर सम्बन्ध से उनके व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है । सामाजिक स्थिति, संस्कृति, सामाजिक परिवेश में नियम संहिता, सामाजिक भूमिका आदि कारक भी मनुष्य के व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं।

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